शनिवार, 23 अगस्त 2008

बच्चों का कैंसर : एएलएल - कुमार मुकुल


कैंसर यानि कर्कट रोग को सामान्यत: असाध्‍य और कुछ हद तक दु:साध्‍य बीमारी के रूप में जाना जाता है। इसमें भी ब्लड कैंसर, जिसे हिंदी में रक्त कर्कट कहा जा सकता है, का नाम सुनकर आज भी लोगों की रूह कांप जाती है। यह अभी भी कम लोगों को पता है कि बच्चे भी कैंसर का शिकार होते हैं। क्योंकि आम राय में यह बीमारी बुरी आदतों का नतीजा होती है और स्वभावत: आदतें बड़ी उम्र में ही दुष्प्रभाव डालना शुरू करती हैं। पर कटु सच यही है कि आज बड़ी संख्या में बच्चे ब्लड कैंसर का शिकार हो रहे हैं।
कैंसर अस्पतालों में अगर आप असमय गंजे हो चुके बच्चों को देखेंगे तो सामान्यत: यह कल्पना भी नहीं कर पाएंगे कि अल्पवय में खल्वाट हो चुके सिरों पर बिना कोई शिकन लाए धमा-चौकड़ी में मग्न ये बच्चे उसी समय ब्लड कैंसर के आक्टोपसी पंजों से जूझ रहे होते हैं। और यह मजेदार तथ्य है कि कैंसर की मरणांतक पीड़ा को खेल-खेल में भुगत रहे इन बच्चों में से अिधकांश इस रक्त कर्कट को पराजित कर देते हैं। हां, यह एक विडंबनापूर्ण सच्चाई है कि एएलएल (एक्यूट लिम्फोब्लािस्टक यूकेमिया) से ग्रस्त बच्चों में से सत्तर-अस्सी फीसदी बच्चे इलाज के बाद रोगमुक्त हो जाते हैं। जबकि इसी बीमारी से ग्रस्त अधिक उम्र के लोगों में मात्र तीस प्रतिशत के ही कठिनाई से रोग मुक्त होने की उम्मीद रहती है।
रक्त की सफेद कोशिकाओं का कैंसर दो तरह को होता है। पहला एएलएल जिसमें कोशिका के लिम्फोसाइटस प्रभावित होते हैं और दूसरा ।डस् जिसमें कोशिका के मेवायड्स रोगग्रस्त होते हैं। बच्चों को अधिकांशत: एएमएल होता है और कीमोथेरेपी और रेडियेशन से इसे काफी हद तक ठीक कर लिया जा सकता है। एएलएल बड़ों को भी होता है पर दवाओं की टािक्सटी (जहरीलापन) झेलने की क्षमता बड़ों में बच्चों से काफी कम होने के कारण उनमें कई तरह की जटिल जेनेटिक असामान्यताएं पैदा होती हैं। फलत: बड़ों में एएलएल से पूर्णत: रोगमुक्त होने का अनुपात काफी कम होता है। ।डस् बड़ों के अनुपात में बच्चों को ज्यादा होता है। एक साल से कम उम्र के बच्चों को एएलएल ज्यादा होता है और वह एएमएल से ज्यादा खतरनाक होता है।
एएलएल के भी तीन प्रकार होते हैं। एल-1,एल-2,एल-3 कई शोधकर्ता एल-3 को एएलएल नहीं मानते हैं। इसे वे बरकिट्स लिंफोमा/ल्यूकेमिया पुकारते हैं। एल-3 बाकी दोनों एएलएल के मुकाबले अलग आचरण करता है।
एल-1 और एल-2 का उपचार एल-3 के मुकाबले थोड़ा भिन्न होता है।
एएलएल के इन प्रकारों में अंतर का आाधार उनकी कोशिकाओं का आकार-प्रकार होता है। एल-1 की कोशिकाओं का आकार जहां छोटा और समानुरूप होता है वहीं एल-2 की कोशिकाओं में कुछ कोशिकाएं जहां बड़ी होती हैं वहीं कुछ छोटी होती हैं।
एएलएल का असर अलग-अलग बच्चों में अलग-अलग होता है। कुछ बच्चे जहां तेजी से रोगमुक्ति की ओर बढ़ते हैं, वहीं कुछ की रोगमुक्ति में समय लगता है। एएलएल का असर कितना गहरा है इसे कुछ टेस्ट्स से जाना जाता है। बच्चे की उम्र और टीएलसी,टोटल ल्‍यूकोसाइट काउंट, के आधार पर यह तय किया जाता है कि मरीज की स्थिति क्‍या है। काउंटस एक लाख से अधिक हो तो बीमारी गंभीर मानी जाती है।
मोटा-मोटी काउंट के आधार पर मरीजों की तीन श्रेणियां बनाई जाती है। बहुत अच्छा, सामान्य और खतरनाक। यूके में पहली श्रेणी के सामान्य तोर पर दवा देते हैं और तीसरी ख़तरनाक श्रेणी पर शुरू से कड़ी निगाह रखनी पड़ती है।
रोग की सही स्थिति के ज्ञान के लिए रोगियों को अपने सारे टेस्ट ध्‍ौर्यपूर्वक कराने चाहिए। देखा जाता है कि कैंसर की शंका होते ही रोगी और मरीज घबरा जाते हैं और आशा करते हैं कि डाक्टर तुरत-फुरत उनका इलाज आरंभ कर दें। जबकि डाक्टर को सही ढंग से इलाज करने के लिए सारे टेस्ट रिपोर्ट्स देखना जरूरी होता है।
जीन टेक्नालोजी के विकास के साथ एएलएल की चिकित्सा में भी कई सहूलियतें बढ़ी हैं। आज उसका जेनेटिक पहलू जानना इलाज में कई तरह से मददगार होता जा रहा है।
एएलएल की चिकित्सा में उसका फीनो टाइप लिम्‍फोब्‍लास्‍ट, मार्बर्स, जानने से सुविधा होती है। इसके लिए रोगी के लिम्फोब्लास्ट, मार्बर्स, डीएनए इंडेक्स और जैनेटिक टेस्ट का सहारा लिया जाता है। लिम्फोब्लास्ट से यह पता चलता है कि रोगी में टीसेल्‍स इम्‍यूनोफीनोटाइप है या बी सेल्स। इस आधार पर दवाओं का अलग-अलग कोर्स होता है।
फिलाडेिल्फया क्रोमोजोम-यह एक तरह की जेनेटिक एबनार्मलिटी है।
एक कोशिका में जीन के 23गुणा दो बराबर 46 जोड़े होते हैं। इनके स्वरूप में जब कई तरह की गडबिड़यां होती हैं तो कैंसर जैसी बीमारी होती है।
एक तरह की गड़बड़ी को मोनोसोमी कहा जाता है। इसमें क्रोमोजान के जोड़े में से एक खो जाता है।
दूसरे तरह की गडत्रबड़ी को हायपरडिप्ल्वायडी पुकारा जाता है। इसमें 46 से अधिक क्रोमोजोम होते हैं। जैसे 50 या अधिक । जीन की गड़बड़ी यह होती है कि उसकी एक बांह टूटकर दूसरे से जुड़ जाती है। इसे ट्रांसलोकेशन पुकारा जाता है। जीन की इसी गड़बड़ी को फिलाडेिल्फया क्रोमोजीन कहा जाता है। क्योंकि इसका पता पहली बार अमेरिका के फिलाडेिल्फया नामक जगह पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों ने लगाया यही क्रोमोजोम की यह गड़बड़ी सामान्यत: क्रोनिक मेल्वायड ल्यूकेमिया सीएमएल में पायी जाती हैं पर एएलएल के कुछ मरीज भी इसके शिकार होते हैं। ऐसे मरीजों को विशेष ध्‍यान और सतर्कता की जरूरत होती है।
फिलाडेिल्फया की गड़बड़ी में 23 क्रोमोजीमों के जोड़ों में से 9वें क्रोमोजोम में 22 वें क्रीमोजोम का एक हिस्सा टूटकर आ मिलता है। (9:22)
शरीर की कोशिकाओं में दोतरह के जीन हमेशा वर्तमान रहते हैं? एक को कैंसर रोधी जीन कहा जाता है तो दूसरे को आन्कोजीन (कैंसरस) पुकारा जाता है। इनके अनुपात में गड़बड़ी आने पर ही कैंसर होता है। यह गड़बड़ी कैसे आती है।
मां के गर्भ में एक्‍सरे के असर से या का अनाज में पेस्टीसाईड का असर भी एएलएल का कारक हो सकता है।
मां के खाने का भी असर होता है। पर कुछ ज्यादा फल खाने वाली महिलाओं के बच्चों को भी एएलएल देखा गया है।
एएलएल के वैसे मरीज जो फिलाडेिल्फया क्रोमोजीन के शिकार होते हैं उन्हें रोगमुक्ति के लिए बोनमैरो ट्ररांसप्लांट की जरूरत पड़ती है। ट्रांसप्लांट में कभी-कभार जान जाने का भी खतरा पैदा हो सकता है? आजकल ट्रसंप्लांट के विकल्प के रूप में एक दवा ईजाद हुई है इसे ग्लीभेक कीमो कहा जाता है? यह कैसे काम करता है। यह दवा (टेबलेट) कीमो के साथ देनी होती है। इसे जीवन भर खाना पड़ता है। ग्लीभेक कीमो के कुछ केसेज में यह काम नहीं भी कर सकता है। ट्रांसप्लांट और ग्लीभेक का खर्च करीब-करीब बराबर आता है।
एएलएल के फिलाडेिल्फया वाले मरीजों में एक तरह के प्रोटीन की वृिद्ध को रोग के उत्प्रेरककार के रूप में देखा जाता है। ग्लीभेक दवा उस प्रोटीन के अनुपात को कम करती है?
ब्लड कैंसर की एक विशेषता यह है कि इसमें सर्जरी की जरूरत नहीं पड़ती? अन्य कैंसरों से यह इसी मामले में अलग होता है। अन्य कैंसरों की तरह इसमें फस्र्ट, सेकेंड, थर्ड स्टेजेज नहीं होते। चूंकि इसमें गड़बड़ी खून में ही होता है। इसका मुख्य इलाज केमोथेरापी (केमिस्ट्री थेरापी) ही है। मतलब दवा और सिंकाई से। एएलएल के मरीजों को जब कीमो पड़ती है तो इसके असर से कोशिकाएं तेजी से मरती हैं। दवा से कैंसर कोशिकाएं अधिक मरती है। इसके चलते शुरू में थोड़ी कठिनाई होती है और दवा चलने के बाद ब्लड काउंट घर जाने पर रोगियों को भर्ती कर उन पर निगाह रखी जाती है। क्योंकि ऐसे रोगियों में प्रतिरोधी सफेद कोशिकाओं के तेजी से क्षरण के कारण उन्हें इंफेक्शन का खतरा रहता है। इलाज के दौरान जिन 20 प्रतिशत से 30 प्रतिशत मरीजों की जान जाती है वह रोग के कारण नहीं, दवा के बाद हुए इंफेक्शन से होती है। इसीलिए शुरू में रोग के इलाज के दौरान विशेष सफाई की जरूरत रहती है।
कुछ समय तक कीमी चलने के बाद सामान्य कोशिकाएं फिर से बढ़ने लगती हैं और कैंसर कोशिकाएं नष्ट होती जाती है? जल्दी ही कैंसर कोशिकाएं नियंत्रित हो जाती हैं।
पर बीमारी पुन: वापिस ना हो इसके लिए दवाओं का चार-पांच महीने का कोर्स चलाया जाता है। हर महीने बोन मैरो टेस्ट कर कैंसर कोशिकाओं की स्थिति को जाना जाता है।
बच्चों का अन्य तरह का कैंसर छह माह के इलाज से ठीक हो जाता हैं पर ।स्स् का इलाज लंबा चलता है। करीब दो-तीन साल तक।
ब्लड कैंसर में चूंकि बीमारी खून को ही प्रभावित करती है इसलिए यह अन्य कैंसरों से जटिल होता है। केमोथेरापी से सफलतापूर्वक रोग के विकास को नियंत्रित कर लिया जाता है। पर इसकी जटिलता का मुख्य कारण यह है कि अभी तरह ऐसा कोई तरीका इजाद नहीं किया जा सका है जिसके तहत यह पता किया जा सका है जिसके तहत यह पता किया जा सके कि अब मरीज के खून में एक भी कैंसर कोशिका नहीं है।
देखा गया है कि कीमो से शरीर की अधिकांश कैंसर कोशिकाएं मर जाती हैं पर शरीर की बनावट के चलते आदमी के ब्रेन में दवाओं का असर नहीं होता? मस्तिष्क को दवाओं के दुष्प्रभाव से बचाने के लिए शरीर के भीतर अपनी एक व्यवस्था है। इसे ब्लड ब्रेन बैरियर कहा जाता है। जब हम कोई दवा खाते हैं तो यह बैरियर दवाओं को बाकी शरीर की तरह सीधे ब्रेन (मस्तिष्क) में जाने से रोकता है।
इसी कारण जब कीमोथेरापी से एएलएल का आरंभ में इलाज शुरू हुआ तो जांच में कैंसर कोशिका नील दिखने पर भी बीमारी रक्त का नमूना लेकर जब जांचा गया तो कारण पता चला कि बैरियर के कारण ब्रेन तक दवा ठीक से नहीं पहुंचती थी और कैंसर कोशिकाएं वहां छुपी रह जाती थीं। तब इसका हल निकाला गया-रेडियोथेरापी इसमें ब्रेन के उस हिस्से की बिजली से सिंकाई की जाती है जहां कैंसर कोशिकाओं के छिपे होने की आशंका होती है।
इस तरह चार-पांच माह के भीतर कीमो और सिंकाई से सामान्यत: बीमारी को निर्मल कर दिया जाता है। कुछ लड़कों में देखा गया है कि उनकी बीमारी टैस्टीजर में छुपी रह जाती है। दरअसल ब्रेन की तरह का एक साधारण सा बैरियर टेस्टीज में भी करता है। टेस्टीज में बीमारी निकलने पर उसकी भी सिंकाई कराई जाती है।
सुरक्षात्मक दृष्टि से आगे डेढ़-दो साल तक कुछ दवाएं चलती रहती है। तीन-तीन महीने के दवाओं के कोर्स के बाद हर बार बोन मैरो टेस्ट कर कैंसर कोशिका की वापसी तो नहीं हुई यह जांचा जाता है। स्थिति लगातार नार्मल होने पर रोगी को रोगमुक्त करार दिया जाता है।
देर तक एएलएल होने का पता नहीं चलने पर मरीज के शरीर में टयूमर और गििल्टयां निकल सकती हैं। त्वचा पर भी गांठ उमर सकती है। इस बीमारी का गुर्दे और हड्डी पर बुरा असर पड़ सकता है। बीमारी बढ़ने पर हडि्डयों पर दाग-धब्बे दिखाई पड़ने लगते हैं। ग्रे से इसे जाना जा सकता है।
ब्लड कैंसर से कभी-कभी इलाज में देर होने पर आंख भी प्रभावित होती है और वहां टयूमर बनने लगता है। और देर करने पर आंख ट्यूमर के साथ बाहर आने लगती है। समय पर इलाज शुरू नहीं करने पर आंख जा भी सकती है। आंखों में ट्यूमर का मामला अधिकतर ।डस् में देखा जाता है, ।स्स् में ज्यादातर गांठे होती हैं जो गले के नीचे और अन्य जोड़ों पर होती हैं। एएलएल से तिल्ली बढ़ जाती है और लीवर भी प्रभावित होता है। इस सबका बराबर ध्‍यान रखना पड़ता है।
खून में कैंसर कोशिकाओं की उपस्थिति की जांच का एकमात्रा तरीका बोनमैरो टेस्ट है। इससे भी कोशिकाओं की स्थिति की शत-प्रतिशत जांच संभव नहीं हो पाती? ऐसे में कुछ ( ») मरीजों में अगर कहीं कैंसर कोशिकाएं छुपी-बची रह जाती हैं तो वे फिर से बीमारी को जगा देती हैं। ऐसे में दो-ढाई साल के बाद जब दवा बंद कर दी जाती है तब बीमारी फिर से उभर जाती है।
इसका पता तब चलता है जब मरीज बच्चे को बुखार आना या अन्य लक्षण आरंभ होता है। तब जांच करने पर अगर फिर से बीमारी के वापस होने का पता चलता है तो फिर से कीमोथेरापी आरंभ करनी पड़ती है। फिर इसी तरह पहले ज्यादा स्ट्रांग कीमो का प्रयोग करना पड़ता है।
कभी-कभी एक मरीज को दो-तीन बार बीमारी वापस आते पाया गया है। हर बार मरीज पहले से ज्यादा कमजोर होता जाता है और दवा की रेसीस्टेंसी भी घटती जाती है ऐसे मरीजों में। फिर खतरा बढ़ता जाता है।

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

खुजली पहले मन में होती है फिर त्वचा पर

खुजली को सामान्यत: एक भद्दी पर आसान बीमारी माना जाता है। पर एक तरह से यह रोगों की दुनिया में पहला कदम होता है। पहले आदमी को मानसिक खुजली होती है, यानी बेचैनी होती है। फिर वह शारीरिक खुजली का रूप ले लेती है।
खुजली दरअसल आपके विकारों को त्वचा के माध्‍यम से बाहर करने का शरीर का प्रारिम्भक तरीका है-जब मल-मूत्र पसीने के रास्ते शरीर अपनी गन्दगी को बाहर करने में असमर्थ होता जाता है, तब वह उसको त्वचा पर स्फोट के रूप में बाहर करता है।
सामान्यत: लोग खुजली होने पर दूरदर्शनी विज्ञापनों में प्रचारित दवाओं का सहारा ले उसे दबा देना चाहते हैं। कई बार आसानी से डेरोबिन, बी-टेक्स जैसे मलहम उसे ऊपर से ठीक भी कर देते हैं। ऐसे में या तो वह फिर त्वचा पर दूसरी जगह उभरता है या फिर त्वचा की ओर हो रहे दूषित द्रव को ये दवाएं भीतर से अन्य अंगों की ओर मोड़ देती हैं।
अब यह द्रव जिस अंग को अपना केन्द्र बनाता है, उस अंग को ये क्षति पहुंचाते हैं और उसे किसी रोग का नाम दे दिया जाता है। फेफड़े की ओर का रुख हो जाता है, तो टीवी होती है। जोड़ों की ओर हुआ, तो उसे गठिया पुकारा जाता है। हृदय की ओर हुआ, तो उसे हृदय रोग कहा जाता है। इसी तरह जिस अंग को यह द्रव दूषित करता है, उसे एक रोग का नाम मिल जाता है। आंखों की ओर होता है, तो गुहौरी या आंखों से कीच अपने, लाली रहने की बीमारी हो जाती है। ये सभी जीर्ण काटि के रोग होते हैं।
यहां भी स्थिति संभाली जा सकती है और उचित दवा के प्रयोग से उसे रोका जा सकता है। पर इस स्थिति के बाद आप हमेशा स्वस्थ रहने के लिए किसी दवा के मोहताज हो जाते हैं।
पर इस स्थिति में भी सही इलाज न हो, तो कैंसर जैसी असाध्‍य बीमारी की चपेट में आप आने लगते हैं।
कैंसर कभी भी अचानक नहीं हो जाता। जैसा कि कहा जाता है कि कोई आदमी पान-बीड़ी कुछ भी नहीं लेता या साधु था, उसे कैंसर हो गया। पर आप पता करेंगे कि उसे पहले कई छोटी बीमारियां रही होंगी, जिन्हें वह अज्ञानवश दबाता चला गया होगा।
कई बार खुजली का कारण पेट में या शरीर में पैदा हो गए कृमि (कीड़े) भी होते हैं। ऐसे में खुजली की जगह पर लवेंडर आयल का एकाध सप्ताह प्रयोग किया जा सकता है। इसके बाद उचित दवा लेनी पड़ती है।

सोमवार, 26 मई 2008

दांत किटकिटाने का मतलब पेट में कीड़ा होना ही नहीं - कुमार मुकुल

हर बार दांत किटकिटाने का मानी पेट में कीड़ा होना नहीं होता। कीड़ों के लिए अनुकूल वातावरण होने पर एक बार उन्हें दवा से मार देने के बाद भी वे बार-बार पनप जो हैं। मीठा और मांस-मछली अधिक खाने से भी पेट में कीड़े पनप जाते हैं। इन आदतों पर नियंत्रण करना होगा।
कीड़े कई तरह के होते हैं, उनके लिए अलग-अलग दवाए¡ लेनी पड़ती हैं। पेट में अगर राउंड वर्म यानी गोलकृमि हों, तो आप होम्योपैथिक दवा सिना का प्रयोग कर सकते हैं। सिना रोगी मोटा और गुलाबी चेहरेवाला होता है। वह चिड़चिड़ा, भुक्खड़ और मीठा पसन्द करनेवाला होता है। अपनी नाक वह खोदता रहता है। ऐसे रोगी सिना 30 की तीन खुराकें रोज ले सकते हैं।
टेप वर्म यानी फीता कृमि के लिए आप क्यूप्रम आक्सीडेटेम निग्रम 1 एक्स की कुछ खुराकें ले सकते हैं। फीता कृमि के लिए आप रोगी को कद्दू के बीजों को छलकर भीतर का हिस्सा खिलाए¡, तो इससे भी कृमि बेहोश हो गुदा मार्ग से बाहर आ सकते हैं। जब कीड़े बाहर आ रहे हों, तब आप उन्हें निकलने दें। बीच से खींच कर उसे तोड़ें नहीं, नहीं तो बाकी बचा हिस्सा जो भीतर रह जाएगा, वह फिर से नया कृमि बन जाएगा।
अगर रोगी को सूत्रा कृमि यानी थे्रड वर्म हो, तो उसे आप चेलोन क्यू की चार-पा¡च बू¡दें एकाèा खुराके देकर कृमि से छुटकारा दलिा सकते हैं। कृमि अगर गुदा प्रवेश में खुजली पैदा करते हों, तो वहा¡ वैजलीन या ओलिव आयल का प्रयोग करने से राहत मिलती है।
यह तो कीड़ों की दवा हुई, पर दा¡त किटकिटाने के अन्य कारण भी हो सकते हैं। ऐसे में नीचे की दवाओं को उनके लक्ष्ज्ञणों का मिलान कर रोगी को
ठीक किया जा सकता है। बेलाडोना 30 का रोगी भी दा¡त किटकिटाता है। ऐसे में अगर रोगी को प्यास नहीं लगती हो और उसे दूèा-मांस नापसन्द हो, भूख कम हो, तो बेला से उसे आराम पहु¡चाया जा सकता है। एंटिम क्रूड के रोगी की जीभ पर सफेदी जमी रहती है और वह आग के पास बैठना पसन्द नहीं करता। इस लक्षण पर आप क्रूड की छह पावन की रोजाना तीन खुराकें देकर उसे दा¡त किटकिटाने से बचा सकते हैं।
आर्स एल्बम का रोगी भी दा¡त बजाता है। पर उसे बेला के विपरीत प्यास अिèाक लगती है। उसे मोटा तकिया लेना पसन्द होता है। वह दूèा भी पसन्द करता है। ऐसे रोगी को आप आर्स 30 की रोज तीन खुराकें देकर उसे स्वस्थ कर सकते हैं। कैनेबिस इंडिका का रोगी अगर दा¡त बजाए, तो देखना होगा कि क्या वह भुलक्कड़ है। कैनेबिस रोगी भी वाचाल होता है और उसे डरावने सपने आते हैं।

गुरुवार, 8 मई 2008

हाय, आप चाय लेंगे - कुमार मुकुल

चाय का आफर मिलने पर अगर कोई चाय पीनेवाला आदमी इनकार करे, तो देखना होगा कि वह वाकई चाय से होनेवाली खामियों के प्रति सचेत हुआ है याफिर उसका फिजिक ही चाय पचा पाने लायक नहीं रह गया है। ऐसे में आप उसे फासफोरस 30 का प्रयोग करने की राय दे सकते हैं।
फासफोरस के रोगी को चाय पचती ही नहीं है। उसका मेटाबोलिज्म (चायपचय) ऐसा बिगड़ा होता है कि वह सामान्य चीजों को भी पचा पाने लायक नहीं रह जाता है। फासफोरस रोगी दुबला-पतला होता है। खास कर उसकी छातियां सिकुड़ी होती हैं। उसके जोड़ कमजोर होते हैं। उसकी चमड़ी पतली और साफ होती है। पर जो लोग वाकई चाय बहुत पीते हों और उनकी आंतें जवाब दे रही हों और परिणामस्वरूप कब्ज भयंकर होती जा रही हो, तो आप हाइड्रेिस्टस को याद कर सकते हैं। आंतें जब मल-निष्कासन में असफल होती जाती हैं, ऐसे में हाइड्रेिस्टस क्यू रामबाण सिद्ध होता है। ऐसा रोगी खुद को कुशाग्रबुिद्ध समझता है। उसे साइनस भी रहती है। पुराने कब्ज की भी हाइड्रेिस्टस अच्छी दवा है और लम्बे समय तक चाय पीना कब्ज को बढ़ावा देता है। ऐसे में इसकी भूमिका स्वयंसिद्ध होती है। ऐसे में सामान्य दवाएं, जो पेट साफ करने में असफल सिद्ध हों तो आप होम्योपैथी की यह दवा दस बूंद सुबह-शाम ले सकते हैं। चाय पीने से कैंसर तक होने की संभावना भी रहती है। ऐसे में हाइड्रेिस्टस कैंसर से आपका बचाव करता है।
चाय पीने से अगर पेट में ऐंठन होती हो और कोई भी खाद्य पदार्थ अनुकूल पड़ता हो, तो आप चाय को छोड़ फेरमफास 12 एक्स का प्रयोग कर सकते हैं। चाय की गड़बिड़यों को एक हद तक चायना भी एक हद तक संभालती है। चाय से जो स्नायविक गड़बिड़यां होती हैं, कमजोरी और पेट में गैस भी, ऐसे में चायना काफी काम की सिद्ध होती है। चाय पीने से अनिद्रा की शिकायत भी बढ़ती जाती है। इस सबको आप चायना 30 की कुछ खुराकें लेकर ठीक कर सकते हैं।
यू¡ चाय से पैदा होनेवाली न्यूरोलाजिकल गड़बिड़यों को थूजा भी दूर कर देता है। अिèाक चाय पीने से अगर आपका खून गन्दा हो गया हो और चेहरे पर लाल फुंसियां निकल रही हों, तो इस गन्दगी को उभारने के लिए आप आरम्भ में हीपर सल्फ की भी कुछ खुराकें ले लें, तो बेहतर होगा।
यूं जिनको चाय से अभी कोई हानि न दिखती हो, पर उससे होनेवाले खतरों के प्रति वे सचेत हों और चाय छोड़ना चाहते हों, तो अपने लक्ष्णों का मिलान कर वे हीपर सल्फ, हाइड्रेिस्टस या कैल्के सल्फ की कुछ खुराकें ले सकते हैं।
चाय अक्सर अल्युमीनियम के भगोने में खदका कर बनाई जाती है। चाय के अलावा यह अल्युमीनियम भी घुल कर पेट की प्रणाली को बार्बाद करने में कम भूमिका नहीं निभाता है। चाय के विकल्प के रूप में कुछ दिन आप नींबू की चाय पी कर काम चला सकते हैं। दिल्ली में आइआइटी के छात्रों को उसी रंग का जो पेय उपलब्‍ध कराया जाता है, उसमें सौंफ आदि पचासों जड़ी-बूटियां मिली होती हैं। अखंड ज्योति द्वारा प्रचारित प्रज्ञा पेय भी चाय का विकल्प हो सकता है।

शुक्रवार, 2 मई 2008

पगला कहीं का - कुमार मुकुल

जब कोई प्यार से आपके गाल थपथपाता हुआ कहता है, पगला कहीं का, तो आप उसे स्नेह की अभिव्यक्ति मानते हैं। पर आपकी किसी क्रिया पर आपका संगी अचानक चिल्ला कर कहे कि पगला गए हो क्या, तो आपको विचार करना चाहिए कि कहीं आपका नर्वस सिस्टम उत्तेजित तो नहीं हो रहा।
मस्तिष्क और उसके स्नायु मंडल में जब किसी कारण उत्तेजना पैदा होती है, तब आदमी अपने होश खाने लगता है। पहले तो वह प्रलाप की अवस्था में जाता है, फिर कभी ह¡सना, अकारण रोना, दा¡त काटते दौड़ना आदि क्रिया करने लगता है। ऐसे में उसे लक्षणों के हिसाब से अगर होमियोपैथी दवा दी जाए, तो उसे का¡के और आगरा जाने से बचाया जा सकता है। पागलपन की ऐसी अवस्था में बेलाडोना हायोसायमस और स्ट्रैमोनियम को लक्षणों के हिसाब से दिया जाना चाहिए। डॉण् नैश इन तीनों दवाओं को पागलपन की मुख्य प्राथमिक दवा मानते हैं। किसी भी बीमारी में अप्रत्याशित तेजी के लिए बेलाडोना को याद किया जाता है। अगर रोगी हर काम बहुत तेजी से करे, अचानक अपना गला दबाने की कोशिश करे, या सामनेवाले को अपनी हत्या करने को कहे, खाना खाने की जगह प्लेट-चम्मच चबाने की कोशिश करे, तो ऐसे में बेलाडोना 30 की कुछ खुराकें उसे नियंत्रित कर सकती हैं। रोगी की आ¡खें लाल हों और वह एक जगह नजर गड़ा कर देखता हो, अपने कपड़े फाड़ डालता हो और किसी के द्वारा माने जाने के काल्पनिक भय से इधर-उधर भागता हो, तो ऐसे में बेलाडोना ही काम करता है।
पागलपन का रोगी अगर उतना हिंसक न हो, बल्कि उनके मनोविकार ज्यादा प्रकट हो रहे हों, जैसे अकारण ह¡सना, गाना, बेहूदी बातें करना, उड़ने का अनुभव करना आदि, तो ऐसे में हायोसायमस 30 की कुछ खुराकें उसे नियंत्रिात कर सकती हैं। हायोसायमस के मूलार्क के कुछ चम्मच पी लेने से स्वस्थ आदमी में भी ये लक्षण उभर सकते हैं।
पर विकट पागलपन की दवा है स्ट्रोमोनियम। इसमें रोगी की बकवास की प्रवृत्ति ऊपर की दोनों दवा से ज्यादा होती है। स्ट्रेमो रोगी अ¡धेरे से डरता है जबकि बेला का रोगी अ¡धेरा पसन्द करता है। स्ट्रेमो रोगी बेला के विपरीत अकेला रहना नहीं चाहता है।
अगर रोगी आत्महत्या के इरादे से भाग जाने की फिराक में रहता हो और इसमें बाधक बननेवाले की हत्याकरने की बात करता हो, तो ऐसे में मेलिलोटस 6 की कुछ खुराकें उसे शान्त करती है। मेलि रोगी को लगता है कि उसके पेट में कुछ गड़बड़ है। उसमें भूत बैठा है। पर रोगी पागल हो जाने की आशंका खुद व्यक्त करता हो या उसका समय जल्दी नहीं बीतता प्रतीत होता हो या अपना रास्ता उसे अनावश्यक लम्बा लगता हो, तो ऐसे में भुलक्कड़ रोगी को कैनेबिस इंडिका का मूलार्क या 6 पावर की दवा लेनी चाहिए। अगर किसी को लगे कि वह बहुत धनी हो और अपने नए कपड़े भी वह जोश में फाड़ डाले या पुराने कपड़े में खुद को राजा महसूस करे, तो उसे सल्फर-1 एम की एक खुराक देकर देखें।

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2008

आ अब लौट चलें - कुमार मुकुल

जब घर की याद सताए

होमियोपैथी में किसी रोग विशेष का इलाज नहीं कियाजाता बल्कि इसमें रोगी के लक्षणों के आधार पर दवा का चुनाव किया जाता है। फिर वैसे ही लक्षण पैदा करनेवाली दवा की खुराकें देकर उस लक्ष‍ण को दूर किया जाता है। इस तरह रोग भी जड़ से दूर हो जाता है। आयुर्वेद की तरह होमियोपैथी में भी इलाज `टिट फॉर टैट´ (जैसे को तैसा) के सिद्धान्त पर होता है, जिसे हमारे यहा¡ `विष: विषस्य औषधम´ का सिद्धान्त भी कहा जाता है। पर जहां आयुर्वेद में खुराक थोड़ी मोटी होती है, वहीं होमियोपैथी में सूक्ष्म खुराकें देकर रोगी को स्वस्थ किया जाता है।
होमियोपैथी में माना जाता है कि पहले किसी भी व्यक्ति में आई गड़बड़ी अपने मनोवैज्ञानिक लक्षण प्रकट करती है। फिर यही लक्षण, जब दवा दिए जाते हैं, तो कई तरह के विकार पैदा होते हैं। या ये मनोवैज्ञानिक लक्षण भी समय के दबाव में बदलते रहते हैं।
ऐसे में बदलते लक्षणों के अनुसार होमियोपैथ दवाओं में परिवर्तन कर उसे दूर करते हैं।
अब अगर आज अपने गांव-घर से दूर कहीं विदेश में आप फंसे हैं, और आपमें घर लौट चलने की इच्छा प्रबल हो रही हो, तो इसे भी होमियोपैथी में एक लक्षण माना जाएगा और इसका इलाज कर आपको संभावित बीमारियों से बचाया जाएगा।
ऐसे लड़के-लड़कियों के लिए जो पढ़ाई के लिए हॉस्टल में डाल दिए गए हों, और वहां उनका मन नहीं लग रहा हो, घर की याद सता रही हो, वे घर भाग जाना चाहते हों, तो उन्हें कैपसिकम-6 की कुछ खुराकें रोज दीजिए। उनका घर वापसी का विचार इससे थमेगा और वे पढ़ाई में मन लगा सकेंगे। ऐसे रोगियों के गाल लाल होते हैं और घर की याद में उन्हें नींद नहीं आती।
पर किसी रोगी में होम सिकनेस हो और घर की याद करते वक्त उस पर एक अनाम उदासी तारी हो जाती हो, ऐसे में आप मर्क सोल-30 को याद कर सकते हैं। ऐसे लोगों में घर को लेकर एक नॉस्टेल्जिया विकसित हो जाता है, जिसे यह दवा दूर कर रोगी को सामान्य होने में मदद करती है।
घर की याद में अगर कोई रोगी अपने आवेगों को संभाल नहीं पाता हो और रोने लगता हो, तो ऐसे लड़के या लड़की को मैग्निशिया म्यूर-200 की एक खुराक तीसरे दिन दिया करें। उसका रोना-धोना घट जाएगा।
पर घर की याद में अगर मन-मस्तिष्क पर दबाव ज्यादा पड़े और परिणामत: उसकी भूख ही मारी जाए, तब आप एसिड फॉस की पहली पोटेंसी का प्रयोग कर सकते हैं या किसी भी रोग में अगर घर लौटने की इच्छा प्रबल हो, तो आप उसे इस दवा से ठीक कर सकते हैं।

सोमवार, 14 अप्रैल 2008

गैस भी हृदय रोग का कारण बन सकता है - कुमार मुकुल

पेट में गैस बनने से कई तरह की परेशानिया¡ पैदा होती हैं। सिर दर्द, पेट दर्द से लेकर हृदय दर्द तक के मूल में पेट में गैस का बनना हो सकता है। एक हृदय रोगी छाती में दर्द से परेशान थे। वे डीएमसीएच और एम्स में अपना इलाज करा रहे थे। साल भर पहले उन्हें हृदय रोग ने परेशान किया था। तब वह आरिम्भक अवस्था में था और एम्स (दिल्ली) में इलाज के बाद नार्मल हो गया था। इधर फिर जब दर्द हुआ और जांच हुई तो हृदय स्वस्थ पाया गया और दर्द का कारण शान्त नहीं किया जा सका।
रोगी की जब मुझसे भेंट हुई, तो मैंने लक्षणों के आधार पर उन्हें जैल्सीमियम 30 और कैक्‍टस 30 दिया। उनकी बीमारी थी कि मोटरसाइकिल पर बाहर घूमते-फिरते रहने पर वे स्वस्थ रहते हैं, पर घर में आते ही चक्कर और दर्द बढ़ जाता है। हृदय में जकड़ने के लक्षण भी थे। इन दो दवाओं से स्थिति नियंत्रण में आ गई। पर अब भी दर्द जा नहीं रहा था। फिर मेरा ध्‍यान कार्बोवेज पर गया। इसमें था कि गैस के कारण हर्ट पर दबाव बढ़ जाता है। और परेशानी बढ़ जाती है। तब रोगी को कार्बोवेज 30 दिया गया। इससे स्थिति काबू में आ गई। आगे एम्स में भी चिकित्सक इसी नतीजे पर पहुंचे कि उनका हर्ट स्वस्थ है और दर्द का कारण कहीं पेट में है। तब कारण पता करने के लिए रोगी का बेरियम टेस्ट किया गया। इस टेस्ट में रोग का कारण गैस ही निकला।
गैस से हुई परेशानी में अगर हम शरीर के हिस्सों को ध्‍यान में रखें, तो तीन दवाओं से रोग का निराकरण किया जा सकता है। अगर गैस के चलते पूरे पेट में ऊपर पसली से लेकर नीचे बड़ी आंत तक परेशानी हो, तो रोगी को चायना दी जा सकती है। ऐसे में अगर रोगी पतला हो और उसे कमजोरी से चक्कर आते हों, तो उसे चायना 6 की दस बूंदें सुबह व शाम कुछ सप्ताह दी जानी चाहिए।
पर अगर गैस के चलते परेशानी पेट के निचले हिस्से में हो और दबाव बड़ी आंत पर ज्यादा हो, तो लाइकोपोडियम 30 से उसका उपचार किया जा सकता है। पेट अगर साफ नहीं होता हो और आपको कई बार पाखाना जाना पड़ता हो, तो इसमें भी लाड़ को कम करता है। ऐसे में नक्स वोमिका भी काम करती है और आप लक्षणों के आधार पर उनसे कोई दवा चुन सकते हैं।
गैस का दबाव अगर केवल छाती के ऊपरी क्षेत्रा में हो और पसली के नीचे दबाव ज्यादा हो और हृदय का भी दबाव पड़ रहा हो, तो आप कार्बोवेज का प्रयोग कर सकते हैं। लाइको की तरह कार्बोवेज भी गहरा असर करनेवाली दवा है।
गैस में इन दवाओं के साथ आपको खान-पान पर ज्यादा ध्‍यान देना होगा। एक सलाह जो आम है कि आप सुबह में मुंह धो‍कर एक गिलास सत्तू जरूर पी लें। चाय आप कम पीएं और तला हुआ न खाएं।